एक समे के बात आय, एक झन नानकुन लइका पेड़ तरी बइठे रहय अउ का जानी काय-काय बड़बड़ावत रहय। उही करा एक झन महराज रद्दा रेंगत पहुंचगे। वो ह देखिस वो लइका ह कुछु-कुछु अपने अपन बड़बड़ावत हे। वो ह पूछिस- कस बाबू तैं अकेल्ला बइठे काय बड़बड़ावत हस? वो लइका कथे महाराज! मोर दाई ह मोला कहे जे जब ते ह अकेल्ला रहस त भगवान सोज बात करे कर। वो काहना ल मान के ये ह भगवान कर गुठियावत रहेंव।
लइका के बात ल सुनके महाराज ह कथे- सुन बाबू, मे ह तोला भगवान संग भेंट होय के मंतर देवत हंव। तें अइसने ठलहा बेरा म ये मंतर ल रटत रहिबे। अतका कहिके वो महराज ह भगवान करा पहुंचगे अउ कथे- भगवान तुम मोला दरसन देवा काबर के मैं एक झन भुलाय लइका ल तुंहर दर्सन पाय के मंतर बनाय हंव।
वोकर बात ल सुन के भगवान कथे- ते ह महाराज के लइका ल भरमा दे। ते नइ जानस वो लइका ह मोर से कतका सुग्घर बात करय। ते-ल तें- ह का पढ़ा दे। अब तो वो ह मोर बनाय एके ठन मंतर ल रटत रही जेकर कांही अरथ नइए। महूं वोकर अरथ ल नइ जानंव।
ये कथा के भाव हे- भगवान ल पाय बर सीधा अउ सरल बनव। भगवान सउहें कहे हे:
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
(सुन्दरकाण्ड दोहा 43 के बाद)
ये धरम के ठेकादार मन के बनाय रद्दा म चलिहा त इंकर सुवारथ भर पूरा होत रही हमर पल्ले काहीं नइ परय।
राघवेन्द्र अग्रवाल
खैरघटा वाले बलौदाबाजार
पहली बार यहाँ आई..पर बढ़िया लगा.
पाखी की दुनिया में भी आपका स्वागत है.
सुन्दर लघु कथा .
पाहिले मन निर्मल करै का चाही . आभार !